भारत में ग्रामीण विकास की चुनौती

आजादी के 76 साल बाद भी भारत में ग्रामीण विकास की चुनौती आज भी बनी हुई है.क्योकि भारत के गाँव और उनके बाशिंदे बदहाल जिंदगी जी रहे हैं. गाँव में दिक्कतों के अंबार लगे हैं.आम आदमी समस्याओं को लेकर गुस्से में है. बिजली, पानी, सड़क, स्कूल, खेती, इलाज, सिंचाई, पशु, बेरोजगारी की समस्याओं को लेकर आये दिन गाँव वाले और अनेक किसान संगठन आंदोलन करते दिखायी पड़ते हैं, परंतु समस्याएँ ज्यों की त्यों मुँह खोले खड़ी हैं.

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सरकार गाँव के विकास के लिए अरबों रुपये सालाना बजट में रखती है. पंचवर्षीय योजनाओं में भी सबसे ज्यादा जोर गाँव की तरक्की को दिया जाता है. अब तक 10 पंचवर्षीय योजनाओं के बाद देश के गाँव अपनी बदहाली का रोना रो रहे हैं. किसी गाँव में बिजली नहीं, किसी में स्कूल नहीं, किसी में सड़क नहीं. इन समस्याओं से परेशान होकर गाँव वाले कभी सड़क रोकते हैं, तो कभी बाजार बंद कराते हैं. यह आंदोलन सरकार के खिलाफ चलाये जाते हैं. सरकार इतना रुपया गाँव के विकास के नाम पर खर्च कर रही है. यह रुपया वहाँ नहीं पहुँच पाता, जहाँ इसे पहुँचना चाहिए. बीच में बैठे भ्रष्टाचारी माल को बीच में खा लेते हैं।

ग्रामीण विकास

भारत में ग्रामीण विकास की आवश्यकता

देश के 6 लाख गाँव मुख्य रूप से खेती एवं उससे जुड़े कामों में लगे हैं. गाँव को विकसित बनाने के लिए गाँव को सड़क व दूरसंचार, बिजली के साथ ही ज्ञान की तेज रफ्तार से जोड़ने की जरूरत है, सूचना प्रौद्योगिकी को अभी भी हमारेगाँव में पहुँचना बाकी है. सवाल यह है कि यह सपना पूरा कैसे हो? गाँव वाले ही इसमें बाधक हैं. विकास कार्य की वह केंद्र नहीं करते. बस चलाई जाये तो किराया नहीं दिया जाता, तोड़फोड़ की जाती है. नालियों को साफ नहीं किया जाता है, जिससे जल भराव और बीमारियों के फैलने की संभावना बढ़ जाती है. अपने घरों की साफ-सफाई पर भी ध्यान नहीं देते. यहाँ तक कि अवैध रूप से कच्ची शराब बनाकर बेचते हैं, इतने से भी काम नहीं चलता, तो हर नुक्कड़ हर चौराहे पर सरकारी शराब का ठेका खोल दिया जाता है.बीड़ी, सिगरेट, तम्बाकू, गुटका की लत के आदी लोग नशे में धुत रहते हैं, पंचायत घर व चौपालों को लोगों ने ताश, सट्टा एवं जुआ खेलने का अड्डा बना लिया है.

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ग्रामीण समाज की चुनौतियाँ

स्कूल तो गाय, भैंस, बकरियाँ, भेडें बाँधने के बाड़े बना दिये गये हैं. ग्राम समाज की जमीन पर लोग अवैध कब्जा किये हुए हैं, टेलीफोन,बिजली के खम्भे और तार लगाये जाते हैं तो तार चोरी कर लिए जाते हैं, पानी के नलों को तोड़ दिया जाता है. जादू,टोना, ज्योतिष, पूजापाठ, कुंडली, जप-तप से काम नहीं बनता तब लोग जानवरों से लेकर इंसान तक की बलिजैसे अंधविश्वास पर विश्वास करते हैं. ऊँच-नीच, छुआछूत, जातिपांत अब भी गाँव में मौजूद है. गाँव के पंच, सरपंच, प्रधान सरकारी योजनाओं जैसे रोजगार, आवास, अकाल, बाढ़ राहत जैसी योजनाओं को अपने परिवार और रिश्तेदारों के बीच बंदर बाँट कर लेते हैं. कुल मिलाकर पंचायत चुनाव में गुटबाजी, मनमुटाव, आपसी वैर-द्वेष और भ्रष्टाचार बढ़ता है. पंचायतें भ्रष्टाचार, दबंगों का अड्डा नजर आती हैं. हालांकि गाँव से खनिज व ऊर्जा संसाधनों एवं पशुधन जंगल, कृषि योग्य भूमि, कामगार आदमियों की कमी नहीं है.

तमाम संसाधनों के बावजूद गाँव आज भी पिछड़े हैं. क्या यह गाँव में रहने वालों की कमी नहीं है? शहरों और गाँव के विकास से जुड़े आंकड़ों की तुलना करें, तो पाते हैं कि शहर में खुशहाली बढ़ी है, जबकि गाँव के भीतर बदहाली और परेशानियाँ बड़ी हैं.

गांवों का समग्र विकास सरकार का लक्ष्य

कृषि प्रधान देश में गाँव और खेती किसानों की स्थिति इतनी दयनीय क्यों है ? हमारे राजनेता और किसान नेता कहलाने वाले लोग भले ही खुद को किसानों एवं गाँव के गरीबों का हितैषी बताते रहते हैं, लेकिन हकीकत यह है कि बड़ी संख्या में कृषक खेती से ऊब चुके हैं, उनकी नजर में कृषि घाटे का व्यवसाय बन गयी है. निःसंदेह यह स्थिति इसलिए बनी क्योंकि गाँवों और किसानों के बारे में बातें तो बहुत की गयीं, किन्तु किया कुछ भी नहीं गया. गाँव पर सर्वाधिक ध्यान दिया जाना चाहिए था, वह घोर उपेक्षा के शिकार हुए. इसके अनेक गंभीर परिणाम सामने आ रहे हैं. इन दुष्परिणामों पर केवल चिंतित होने, बैठकें करने अथवा कुछ नई योजनाएँ बनाने से कुछ होने वाला नहीं है.

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